युवा पीढ़ी की साहित्यिक अरुचि और किताबों से उनकी विमुखता के संदर्भ में मैं समझता हूँ कि इसके लिए जहॉं एक ओर हमारी शिक्षा-व्यवस्था दोषी है, वहीं दूसरी ओर किशोर साहित्य का अभाव भी इसका कारण है। तीसरे कारण के रूप में हम सूचना क्रांति को ले सकते हैं।
हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को ज्ञान का भंडार बनाने में विश्वास रखती है, परंतु वह ज्ञान जिस रूप (यानी भाषा) में संप्रेषित होकर स्थायित्व प्राप्त करता है, उसके संस्कार पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया जाता। इसका प्रमाण प्राय: अस्सी प्रतिशत शिक्षकों और छात्रों के वे बयान हैं, जो समूमे भारत में कहीं भी सुने जा सकते हैं कि विज्ञान, गणित आदि विषयों की पढ़ाई-लिखाई के लिए भाषा की शुद्धता आवश्यक नहीं, मूल चीज है तथ्य एवं जानकारी। भाषा के प्रित यह रवैया निश्चय ही साहित्य विमुख हो जाने की पहली सीढ़ी है, जिसका परिणाम यह है कि एक बहुत बड़ा वर्ग शब्दों के शुद्ध लेखन और पाठ की क्षमता नहीं रखता। यह बात हिन्दी के लिए ही नहीं, अन्य भाषाओं के लिए भी इतनी ही सही है।
यदि विद्यार्थियों का एक छोटा-सा वर्ग सही भाषिक संस्कार प्राप्त कर भी लेता है, तो उसकी भावनाओं के अनुरूप, उसकी संवेदनाओं के मुतल्लिक उसे अनुकूल साहित्य नहीं मिल पाता। हमारे यहॉं बच्चों के साहित्य का जो तथाकथित स्वर्णयुग है, उसके खोखलेपन से प्राय: लोग परिचित ही हैं। यदि कुछेक पत्रिकाओं और जीवट के सच्चे बाल साहित्यकारों की बदौलत भाषिक संस्कार प्राप्त बच्चों का यह वर्ग अपने लिए अनुकूल साहित्य प्राप्त कर भी लेता है, तो उनमें अंकुरित साहित्याभिरुचि के इस बीज को हम विकसित ही कहॉं कर पाते हैं?
किशोरों की मानसिकता के अनुकूल साहित्य रचा जाए और उनके साहित्यिक संस्कार परिवर्द्धित हों, इसके लिए विचार या प्रयास प्राय: नहीं हो रहे हैं, किशोर वर्ग बिलकुल उपेक्षित है। यह अलग बात है कि बाल-किशोर पात्रों और उनकी मनोभावनाओं से जुड़ी अनेक कहानियॉं आज हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों के रूप में परिगणित होती हैं, परंतु उनके ही लेखक बाल-किशोर साहित्य रचने में अपनी हेठी समझते हैं।
ऐसी अनपेक्षित, सुनियोजित उपेक्षा का परिणाम तो भुगतना ही होगा। 'पाठक आओ, पाठक आओ' चिल्लाने से साहित्य के पाठकों की अभिवृद्धि नहीं हो जाएगी। पाठक तैयार करने पड़ते हैं। आज भी बांग्ला साहित्य के पाठकों की समस्या नहीं है, क्योंकि बांग्ला साहित्यकारों ने बच्चों और किशोरों के लिए साहित्य रचा है, युवा मानसिकता को सम्मान दिया है, उनकी साहित्यिक अभिरुचि को संवर्द्धित किया है।
अभी कुछ वर्ष पहले समूचा साहित्य जगत 'वर्दीवाला गुंडा' का डंका पीट रहा था, 'सरिता' पत्रिका के पाठकों पर भी उसे आपत्ति है। लेकिन जनाब, क्यों नहीं होंगे उनके पास पाठक? वे पाठक तैयार करते हैं। दिल्ली प्रेस बच्चों के लिए 'चंपक', किशोरों के लिए 'सुमन सौरभ' और युवाओं के लिए 'मुक्ता' प्रकाशित करता है, उसके बाद वह उन्हें 'सरिता' पढ़ाता है। वे अपने पाठकों को उसके बचपने में पकड़ते हैं और निरंतर पकड़े रहते हैं, उन्हें छूटने नहीं देते। 'वर्दीवाला गुंडा' जैसे उपन्यासों के पाठक भी ऐसे ही तैयार होते हैं, कुछ तो कॉमिक्स और बाल पॉकेट बुक्स के द्वारा तथा बाकी हमारी अपनी गलती से। हम जिन किशोरों को साहित्य उपलब्ध नहीं कराते, वे कुछ-न-कुछ पढ़ेंगे ही--फिर क्यों नहीं उनकी रुचि उन उपन्यासों की ओर हो? आखिर उनके तिलिस्म और रहस्य देवकीनंदन खत्री और गोपालराम गहमरी के उपन्यासों से कम रोचक तो हैं नहीं।
वैचारिकी संकलन, अक्तूबर 1996 में प्रकाशित आलेख 'युवा लेखन : अभिव्यक्ति की समस्याऍं' (लेखक : देवेन्द्र कुमार देवेश) का एक अंश
No comments:
Post a Comment