हिन्दी में किशोर साहित्य पर दूसरी और एकमात्र पुस्तक 'किशोर साहित्य की संभावनाऍं' (सं. देवेन्द्र कुमार देवेश, प्रथम सं. 2001) है। इस पुस्तक के माध्यम से किशोर साहित्य की आवश्यकता, अवधारणा, मौजूदा किशोर साहित्य की पड्ताल और सृजन की संभावनाओं का रचनात्मक परिदृश्य उपस्थित करने का प्रयत्न किया गया है। बाल-किशोर साहित्य और गंभीर साहत्य की रचनात्मक दुनिया में पिछले पॉंच-छह दशकों के दौरान सक्रिय रचनाकारों, संपादकों और आलोचकों की अनेक पीढ़ियों के विचार यहॉं एक साथ उपस्िथत हैं।
संगृहीत आलेखों में शिद्दत से जहॉं किशोरों के लिए अनुकूल साहित्य के सृजन की आवश्यकता रेखांकित होती है, वहीं उपलब्ध साहित्य की पड़ताल करते हुए सृजन की संभावनाओं के विस्तीर्ण आकाश की ओर भी सहभागी लेखकों ने संकेत किए हैं। पुस्तक पैंतालीस लेखकों के विचारों से समृद्ध है, जिन्होंने वैचारिक चर्चा के अंतर्गत जहॉं एक ओर किशोर मानसिकता, किशोर साहित्य की जरूरत, बालसाहित्य और गंभीर साहित्य के बीच पाठकीय सेतु के रूप में इसकी अवधारणा और किशोरों तक इसकी पहुँच से जुड़े प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया है, वहीं व्यावहारिक चर्चा के अंतर्गत हिन्दी सहित विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध किशोरोपयोगी साहित्य का आकलन किशोरों की वास्तविक एवं मानसिक दुनिया के परिप्रेक्ष्य में करने के प्रयत्न भी उन्होंने किए हैं।
पुस्तक में शामिल लेखकों के नाम हैं : हरिकृष्ण देवसरे, राष्ट्रबंधु, श्रीप्रसाद, नरेन्द्र कोहली, जयप्रकाश भारती, बालशौरि रेड्डी, दामोदर अग्रवाल, चंद्रकांत बांदिवडेकर, राजेन्द्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, हरदलयाल, शंभुनाथ, रणजीत साहा, मृदुला गर्ग, वीरेन्द्र जैन, दीक्षा बिष्ट, ज्योतिष जोशी, रत्नप्रकाश शील, रेखा जैन, देवेन्द्र कुमार, शेरजंग गर्ग, द्रोणवीर कोहली, प्रकाश मनु, प्रयाग शुक्ल, राजेश जैन, क्षमा शर्मा, रूपसिंह चंदेल, रमेश तैलंग, भगवती प्रसाद द्विवेदी, सुरेखा पाणंदीकर, सूर्यकुमार पांडेय, राजनारायण चौधरी, संतोष साहनी, रोहिताश्व अस्थाना, बाबूराम शर्मा विभाकर, रामनिरंजन शर्मा ठिमाऊँ, विभा देवसरे, मृदुला हालन, नागेश पांडेय संजय, जाकिर अली रजनीश, सुनील कुमार सुमन, रमेश आजाद, रणविजय सिंह सत्यकेतु, राजर्षि अरुण।
पुस्तक की प्रति प्राप्त करने के लिए ई-मेल करें : devendradevesh@yahoo.co.in
किशोर साहित्य
हिन्दी समाज और साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि यहॉं किशोर साहित्य को कोई विशिष्ट पहचान नहीं मिल पाई है। तीन वर्ष से अठारह वर्ष तक के आयुवर्ग के लिए छपनेवाला साहित्य यहॉं बाल साहित्य के नाम से अभिहित किया जाता रहा है, लेकिन उसमें किशोरों के लिए उपयुक्त साहित्य का नितांत अभाव है।
Friday, July 22, 2011
Wednesday, September 1, 2010
साहित्यिक अभिरुचि, पठनीयता का संकट और किशोर साहित्य
युवा पीढ़ी की साहित्यिक अरुचि और किताबों से उनकी विमुखता के संदर्भ में मैं समझता हूँ कि इसके लिए जहॉं एक ओर हमारी शिक्षा-व्यवस्था दोषी है, वहीं दूसरी ओर किशोर साहित्य का अभाव भी इसका कारण है। तीसरे कारण के रूप में हम सूचना क्रांति को ले सकते हैं।
हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को ज्ञान का भंडार बनाने में विश्वास रखती है, परंतु वह ज्ञान जिस रूप (यानी भाषा) में संप्रेषित होकर स्थायित्व प्राप्त करता है, उसके संस्कार पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया जाता। इसका प्रमाण प्राय: अस्सी प्रतिशत शिक्षकों और छात्रों के वे बयान हैं, जो समूमे भारत में कहीं भी सुने जा सकते हैं कि विज्ञान, गणित आदि विषयों की पढ़ाई-लिखाई के लिए भाषा की शुद्धता आवश्यक नहीं, मूल चीज है तथ्य एवं जानकारी। भाषा के प्रित यह रवैया निश्चय ही साहित्य विमुख हो जाने की पहली सीढ़ी है, जिसका परिणाम यह है कि एक बहुत बड़ा वर्ग शब्दों के शुद्ध लेखन और पाठ की क्षमता नहीं रखता। यह बात हिन्दी के लिए ही नहीं, अन्य भाषाओं के लिए भी इतनी ही सही है।
यदि विद्यार्थियों का एक छोटा-सा वर्ग सही भाषिक संस्कार प्राप्त कर भी लेता है, तो उसकी भावनाओं के अनुरूप, उसकी संवेदनाओं के मुतल्लिक उसे अनुकूल साहित्य नहीं मिल पाता। हमारे यहॉं बच्चों के साहित्य का जो तथाकथित स्वर्णयुग है, उसके खोखलेपन से प्राय: लोग परिचित ही हैं। यदि कुछेक पत्रिकाओं और जीवट के सच्चे बाल साहित्यकारों की बदौलत भाषिक संस्कार प्राप्त बच्चों का यह वर्ग अपने लिए अनुकूल साहित्य प्राप्त कर भी लेता है, तो उनमें अंकुरित साहित्याभिरुचि के इस बीज को हम विकसित ही कहॉं कर पाते हैं?
किशोरों की मानसिकता के अनुकूल साहित्य रचा जाए और उनके साहित्यिक संस्कार परिवर्द्धित हों, इसके लिए विचार या प्रयास प्राय: नहीं हो रहे हैं, किशोर वर्ग बिलकुल उपेक्षित है। यह अलग बात है कि बाल-किशोर पात्रों और उनकी मनोभावनाओं से जुड़ी अनेक कहानियॉं आज हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों के रूप में परिगणित होती हैं, परंतु उनके ही लेखक बाल-किशोर साहित्य रचने में अपनी हेठी समझते हैं।
ऐसी अनपेक्षित, सुनियोजित उपेक्षा का परिणाम तो भुगतना ही होगा। 'पाठक आओ, पाठक आओ' चिल्लाने से साहित्य के पाठकों की अभिवृद्धि नहीं हो जाएगी। पाठक तैयार करने पड़ते हैं। आज भी बांग्ला साहित्य के पाठकों की समस्या नहीं है, क्योंकि बांग्ला साहित्यकारों ने बच्चों और किशोरों के लिए साहित्य रचा है, युवा मानसिकता को सम्मान दिया है, उनकी साहित्यिक अभिरुचि को संवर्द्धित किया है।
अभी कुछ वर्ष पहले समूचा साहित्य जगत 'वर्दीवाला गुंडा' का डंका पीट रहा था, 'सरिता' पत्रिका के पाठकों पर भी उसे आपत्ति है। लेकिन जनाब, क्यों नहीं होंगे उनके पास पाठक? वे पाठक तैयार करते हैं। दिल्ली प्रेस बच्चों के लिए 'चंपक', किशोरों के लिए 'सुमन सौरभ' और युवाओं के लिए 'मुक्ता' प्रकाशित करता है, उसके बाद वह उन्हें 'सरिता' पढ़ाता है। वे अपने पाठकों को उसके बचपने में पकड़ते हैं और निरंतर पकड़े रहते हैं, उन्हें छूटने नहीं देते। 'वर्दीवाला गुंडा' जैसे उपन्यासों के पाठक भी ऐसे ही तैयार होते हैं, कुछ तो कॉमिक्स और बाल पॉकेट बुक्स के द्वारा तथा बाकी हमारी अपनी गलती से। हम जिन किशोरों को साहित्य उपलब्ध नहीं कराते, वे कुछ-न-कुछ पढ़ेंगे ही--फिर क्यों नहीं उनकी रुचि उन उपन्यासों की ओर हो? आखिर उनके तिलिस्म और रहस्य देवकीनंदन खत्री और गोपालराम गहमरी के उपन्यासों से कम रोचक तो हैं नहीं।
वैचारिकी संकलन, अक्तूबर 1996 में प्रकाशित आलेख 'युवा लेखन : अभिव्यक्ति की समस्याऍं' (लेखक : देवेन्द्र कुमार देवेश) का एक अंश
हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को ज्ञान का भंडार बनाने में विश्वास रखती है, परंतु वह ज्ञान जिस रूप (यानी भाषा) में संप्रेषित होकर स्थायित्व प्राप्त करता है, उसके संस्कार पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया जाता। इसका प्रमाण प्राय: अस्सी प्रतिशत शिक्षकों और छात्रों के वे बयान हैं, जो समूमे भारत में कहीं भी सुने जा सकते हैं कि विज्ञान, गणित आदि विषयों की पढ़ाई-लिखाई के लिए भाषा की शुद्धता आवश्यक नहीं, मूल चीज है तथ्य एवं जानकारी। भाषा के प्रित यह रवैया निश्चय ही साहित्य विमुख हो जाने की पहली सीढ़ी है, जिसका परिणाम यह है कि एक बहुत बड़ा वर्ग शब्दों के शुद्ध लेखन और पाठ की क्षमता नहीं रखता। यह बात हिन्दी के लिए ही नहीं, अन्य भाषाओं के लिए भी इतनी ही सही है।
यदि विद्यार्थियों का एक छोटा-सा वर्ग सही भाषिक संस्कार प्राप्त कर भी लेता है, तो उसकी भावनाओं के अनुरूप, उसकी संवेदनाओं के मुतल्लिक उसे अनुकूल साहित्य नहीं मिल पाता। हमारे यहॉं बच्चों के साहित्य का जो तथाकथित स्वर्णयुग है, उसके खोखलेपन से प्राय: लोग परिचित ही हैं। यदि कुछेक पत्रिकाओं और जीवट के सच्चे बाल साहित्यकारों की बदौलत भाषिक संस्कार प्राप्त बच्चों का यह वर्ग अपने लिए अनुकूल साहित्य प्राप्त कर भी लेता है, तो उनमें अंकुरित साहित्याभिरुचि के इस बीज को हम विकसित ही कहॉं कर पाते हैं?
किशोरों की मानसिकता के अनुकूल साहित्य रचा जाए और उनके साहित्यिक संस्कार परिवर्द्धित हों, इसके लिए विचार या प्रयास प्राय: नहीं हो रहे हैं, किशोर वर्ग बिलकुल उपेक्षित है। यह अलग बात है कि बाल-किशोर पात्रों और उनकी मनोभावनाओं से जुड़ी अनेक कहानियॉं आज हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों के रूप में परिगणित होती हैं, परंतु उनके ही लेखक बाल-किशोर साहित्य रचने में अपनी हेठी समझते हैं।
ऐसी अनपेक्षित, सुनियोजित उपेक्षा का परिणाम तो भुगतना ही होगा। 'पाठक आओ, पाठक आओ' चिल्लाने से साहित्य के पाठकों की अभिवृद्धि नहीं हो जाएगी। पाठक तैयार करने पड़ते हैं। आज भी बांग्ला साहित्य के पाठकों की समस्या नहीं है, क्योंकि बांग्ला साहित्यकारों ने बच्चों और किशोरों के लिए साहित्य रचा है, युवा मानसिकता को सम्मान दिया है, उनकी साहित्यिक अभिरुचि को संवर्द्धित किया है।
अभी कुछ वर्ष पहले समूचा साहित्य जगत 'वर्दीवाला गुंडा' का डंका पीट रहा था, 'सरिता' पत्रिका के पाठकों पर भी उसे आपत्ति है। लेकिन जनाब, क्यों नहीं होंगे उनके पास पाठक? वे पाठक तैयार करते हैं। दिल्ली प्रेस बच्चों के लिए 'चंपक', किशोरों के लिए 'सुमन सौरभ' और युवाओं के लिए 'मुक्ता' प्रकाशित करता है, उसके बाद वह उन्हें 'सरिता' पढ़ाता है। वे अपने पाठकों को उसके बचपने में पकड़ते हैं और निरंतर पकड़े रहते हैं, उन्हें छूटने नहीं देते। 'वर्दीवाला गुंडा' जैसे उपन्यासों के पाठक भी ऐसे ही तैयार होते हैं, कुछ तो कॉमिक्स और बाल पॉकेट बुक्स के द्वारा तथा बाकी हमारी अपनी गलती से। हम जिन किशोरों को साहित्य उपलब्ध नहीं कराते, वे कुछ-न-कुछ पढ़ेंगे ही--फिर क्यों नहीं उनकी रुचि उन उपन्यासों की ओर हो? आखिर उनके तिलिस्म और रहस्य देवकीनंदन खत्री और गोपालराम गहमरी के उपन्यासों से कम रोचक तो हैं नहीं।
वैचारिकी संकलन, अक्तूबर 1996 में प्रकाशित आलेख 'युवा लेखन : अभिव्यक्ति की समस्याऍं' (लेखक : देवेन्द्र कुमार देवेश) का एक अंश
Tuesday, July 13, 2010
हिन्दी में किशोर साहित्य पर पहली पुस्तक
हिन्दी में किशोर साहित्य पर विचार-विमर्श प्रस्तुत करनेवाली पहली पुस्तक 'हिन्दी किशोर साहित्य' 1953 ई. में नंदकिशोर एंड ब्रदर्स (वाराणसी) द्वारा प्रकाशित की गई थी, जिसकी लेखिका ज्योत्स्ना द्विवेदी हैं। ज्योत्स्ना जी द्वारा 1952 ई. में एम.एड. परीक्षा के लिए प्रस्तुत शोधप्रबंध का यह प्रकाशित रूप है। 214 पृष्ठों की इस पुस्तक में आठ अध्याय हैं--
(1) किशोर साहित्य का मनोवैज्ञानिक आधार
(2) हिन्दी में किशोर साहित्य का विकास
(3) हिन्दी में बाल तथा किशोर काव्य
(4) हिन्दी में बालोपयोगी तथा किशोरोपयोगी कहानियॉं
(5) नाटक, निबंध, जीवन-चरित्र तथा विविध साहित्य
(6) पत्र-पत्रिकाऍं
(7) काव्याभिरुचि निश्चित करने के प्रयोग, तथा
(8) हिन्दी में बाल तथा किशोर साहित्य का भविष्य
हालॉंकि पुस्तक में बाल-किशोर दोनों ही वर्गों के साहित्य पर विचार किया गया है, पर यदि सिर्फ किशोर साहित्य के संदर्भ में ही बात करें, तो लेखिका का एक समग्र दृष्टिकोण सामने आता है, जिसके अंतर्गत उन्होंने बालसाहित्य ही नहीं, वरन प्रौढ़ साहित्य की उन सामग्रियों पर भी विचार किया है, जो किशोर साहित्य मानी जानी चाहिए।
लेकिन हिन्दी के प्रख्यात बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने उक्त पुस्तक पर लिखे अपने समीक्षात्मक लेख में निम्नांकित टिप्पणी की है--''ज्योत्स्ना द्विवेदी की इस छोटी-सी पुस्तक की रूपरेखा निश्चय ही यह आशा बँधाती है कि उस समय तक लिखे किशोर साहित्य का इसमें गंभीर विवेचन होगा, किन्तु वास्तव में यह पुस्तक निराश अधिक करती है। पुस्तक के पहले अध्याय में किशोरावस्था के मनोविज्ञान का निश्चय ही गंभीरता से विवेचन किया गया है, किन्तु जैसे ही किशोर साहित्य की चर्चा शुरू होती है, वहीं से विषय-विवेचन गड्डमड्ड होने लगता है। कारण यह है कि बाल साहित्य और किशोर साहित्य में तब अंतर करने में लेखिका असमर्थ दीखती है। यहॉं हम बाल साहित्य उसे कह रहे हैं, जो शिशु और दस-बारह वर्ष के बच्चों के लिए लिखा गया हो। इसके बाद से किशोरावस्था शुरू होती है।'' (किशोर साहित्य की संभावनाऍं, सं; देवेन्द्र कुमार देवेश, 2001, पृष्ठ 26)
(1) किशोर साहित्य का मनोवैज्ञानिक आधार
(2) हिन्दी में किशोर साहित्य का विकास
(3) हिन्दी में बाल तथा किशोर काव्य
(4) हिन्दी में बालोपयोगी तथा किशोरोपयोगी कहानियॉं
(5) नाटक, निबंध, जीवन-चरित्र तथा विविध साहित्य
(6) पत्र-पत्रिकाऍं
(7) काव्याभिरुचि निश्चित करने के प्रयोग, तथा
(8) हिन्दी में बाल तथा किशोर साहित्य का भविष्य
हालॉंकि पुस्तक में बाल-किशोर दोनों ही वर्गों के साहित्य पर विचार किया गया है, पर यदि सिर्फ किशोर साहित्य के संदर्भ में ही बात करें, तो लेखिका का एक समग्र दृष्टिकोण सामने आता है, जिसके अंतर्गत उन्होंने बालसाहित्य ही नहीं, वरन प्रौढ़ साहित्य की उन सामग्रियों पर भी विचार किया है, जो किशोर साहित्य मानी जानी चाहिए।
लेकिन हिन्दी के प्रख्यात बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने उक्त पुस्तक पर लिखे अपने समीक्षात्मक लेख में निम्नांकित टिप्पणी की है--''ज्योत्स्ना द्विवेदी की इस छोटी-सी पुस्तक की रूपरेखा निश्चय ही यह आशा बँधाती है कि उस समय तक लिखे किशोर साहित्य का इसमें गंभीर विवेचन होगा, किन्तु वास्तव में यह पुस्तक निराश अधिक करती है। पुस्तक के पहले अध्याय में किशोरावस्था के मनोविज्ञान का निश्चय ही गंभीरता से विवेचन किया गया है, किन्तु जैसे ही किशोर साहित्य की चर्चा शुरू होती है, वहीं से विषय-विवेचन गड्डमड्ड होने लगता है। कारण यह है कि बाल साहित्य और किशोर साहित्य में तब अंतर करने में लेखिका असमर्थ दीखती है। यहॉं हम बाल साहित्य उसे कह रहे हैं, जो शिशु और दस-बारह वर्ष के बच्चों के लिए लिखा गया हो। इसके बाद से किशोरावस्था शुरू होती है।'' (किशोर साहित्य की संभावनाऍं, सं; देवेन्द्र कुमार देवेश, 2001, पृष्ठ 26)
Wednesday, July 7, 2010
किशोर साहित्य की अवधारणा
बच्चों के समझना-सीखना और लिखना-पढ़ना शुरू करने से लेकर युवावस्था प्राप्त करने तक की अवस्था में तीन आयुवर्ग समाहित हैं : शिशु वर्ग (3 से 6 वर्ष), बाल वर्ग (6 से 12 वर्ष) तथा किशोर वर्ग (12 से 18 वर्ष)। यद्यपि हिन्दी में छपनेवाला बाल साहित्य इन तीनों वर्गों के बच्चों को पढ़ने के लिए दिया जाता रहा है, शिशु साहित्य और बाल साहित्य के बीच तो स्पष्ट सीमांकन मौजूद है, परंतु किशोर साहित्य की कोई अलग पहचान नहीं बन पाई है। मुझे यह जरूरी लगता है कि बाल साहित्य और किशोर साहित्य के बीच भी सुस्पष्ट रेखांकन हो, जिससे अब तक उपेक्षित से रहे किशोरों के लिए अनुकूल साहित्य की समुचित पहचान और संवर्द्धन हो सके।
कतिपय रचनाकार इस बात के खिलाफ हैं कि साहित्य में शिशु साहित्य, बाल साहित्य, किशोर साहित्य और गंभीर साहित्य जैसे किसी प्रकार के सीमांकन हों। उनकी नजर में विश्व की किसी भी भाषा में लिखा गया संपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य किसी को भी पढ़ने के लिए दिया जा सकता है--लेकिन व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सता कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मानसिक स्तर के अनुरूप ही कला के किसी रूप का आनंद ले सकता है।
वर्तमान समय में प्राय: रचनाकार इस बात से सहमत हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र के सीमांकन को स्वीकार कर उससे पूर्व बाल मनोविज्ञान के अनुरूप 'बाल साहित्य' तथा तत्पश्चात किशोर मानसिकता के अनुकूल 'किशोर साहित्य' हमारे बाल-किशोर बच्चों को उपलब्ध कराया जाए।
कतिपय रचनाकार इस बात के खिलाफ हैं कि साहित्य में शिशु साहित्य, बाल साहित्य, किशोर साहित्य और गंभीर साहित्य जैसे किसी प्रकार के सीमांकन हों। उनकी नजर में विश्व की किसी भी भाषा में लिखा गया संपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य किसी को भी पढ़ने के लिए दिया जा सकता है--लेकिन व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सता कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मानसिक स्तर के अनुरूप ही कला के किसी रूप का आनंद ले सकता है।
वर्तमान समय में प्राय: रचनाकार इस बात से सहमत हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र के सीमांकन को स्वीकार कर उससे पूर्व बाल मनोविज्ञान के अनुरूप 'बाल साहित्य' तथा तत्पश्चात किशोर मानसिकता के अनुकूल 'किशोर साहित्य' हमारे बाल-किशोर बच्चों को उपलब्ध कराया जाए।
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