हिन्दी में किशोर साहित्य पर विचार-विमर्श प्रस्तुत करनेवाली पहली पुस्तक 'हिन्दी किशोर साहित्य' 1953 ई. में नंदकिशोर एंड ब्रदर्स (वाराणसी) द्वारा प्रकाशित की गई थी, जिसकी लेखिका ज्योत्स्ना द्विवेदी हैं। ज्योत्स्ना जी द्वारा 1952 ई. में एम.एड. परीक्षा के लिए प्रस्तुत शोधप्रबंध का यह प्रकाशित रूप है। 214 पृष्ठों की इस पुस्तक में आठ अध्याय हैं--
(1) किशोर साहित्य का मनोवैज्ञानिक आधार
(2) हिन्दी में किशोर साहित्य का विकास
(3) हिन्दी में बाल तथा किशोर काव्य
(4) हिन्दी में बालोपयोगी तथा किशोरोपयोगी कहानियॉं
(5) नाटक, निबंध, जीवन-चरित्र तथा विविध साहित्य
(6) पत्र-पत्रिकाऍं
(7) काव्याभिरुचि निश्चित करने के प्रयोग, तथा
(8) हिन्दी में बाल तथा किशोर साहित्य का भविष्य
हालॉंकि पुस्तक में बाल-किशोर दोनों ही वर्गों के साहित्य पर विचार किया गया है, पर यदि सिर्फ किशोर साहित्य के संदर्भ में ही बात करें, तो लेखिका का एक समग्र दृष्टिकोण सामने आता है, जिसके अंतर्गत उन्होंने बालसाहित्य ही नहीं, वरन प्रौढ़ साहित्य की उन सामग्रियों पर भी विचार किया है, जो किशोर साहित्य मानी जानी चाहिए।
लेकिन हिन्दी के प्रख्यात बाल साहित्यकार डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने उक्त पुस्तक पर लिखे अपने समीक्षात्मक लेख में निम्नांकित टिप्पणी की है--''ज्योत्स्ना द्विवेदी की इस छोटी-सी पुस्तक की रूपरेखा निश्चय ही यह आशा बँधाती है कि उस समय तक लिखे किशोर साहित्य का इसमें गंभीर विवेचन होगा, किन्तु वास्तव में यह पुस्तक निराश अधिक करती है। पुस्तक के पहले अध्याय में किशोरावस्था के मनोविज्ञान का निश्चय ही गंभीरता से विवेचन किया गया है, किन्तु जैसे ही किशोर साहित्य की चर्चा शुरू होती है, वहीं से विषय-विवेचन गड्डमड्ड होने लगता है। कारण यह है कि बाल साहित्य और किशोर साहित्य में तब अंतर करने में लेखिका असमर्थ दीखती है। यहॉं हम बाल साहित्य उसे कह रहे हैं, जो शिशु और दस-बारह वर्ष के बच्चों के लिए लिखा गया हो। इसके बाद से किशोरावस्था शुरू होती है।'' (किशोर साहित्य की संभावनाऍं, सं; देवेन्द्र कुमार देवेश, 2001, पृष्ठ 26)
हिन्दी समाज और साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि यहॉं किशोर साहित्य को कोई विशिष्ट पहचान नहीं मिल पाई है। तीन वर्ष से अठारह वर्ष तक के आयुवर्ग के लिए छपनेवाला साहित्य यहॉं बाल साहित्य के नाम से अभिहित किया जाता रहा है, लेकिन उसमें किशोरों के लिए उपयुक्त साहित्य का नितांत अभाव है।
Tuesday, July 13, 2010
Wednesday, July 7, 2010
किशोर साहित्य की अवधारणा
बच्चों के समझना-सीखना और लिखना-पढ़ना शुरू करने से लेकर युवावस्था प्राप्त करने तक की अवस्था में तीन आयुवर्ग समाहित हैं : शिशु वर्ग (3 से 6 वर्ष), बाल वर्ग (6 से 12 वर्ष) तथा किशोर वर्ग (12 से 18 वर्ष)। यद्यपि हिन्दी में छपनेवाला बाल साहित्य इन तीनों वर्गों के बच्चों को पढ़ने के लिए दिया जाता रहा है, शिशु साहित्य और बाल साहित्य के बीच तो स्पष्ट सीमांकन मौजूद है, परंतु किशोर साहित्य की कोई अलग पहचान नहीं बन पाई है। मुझे यह जरूरी लगता है कि बाल साहित्य और किशोर साहित्य के बीच भी सुस्पष्ट रेखांकन हो, जिससे अब तक उपेक्षित से रहे किशोरों के लिए अनुकूल साहित्य की समुचित पहचान और संवर्द्धन हो सके।
कतिपय रचनाकार इस बात के खिलाफ हैं कि साहित्य में शिशु साहित्य, बाल साहित्य, किशोर साहित्य और गंभीर साहित्य जैसे किसी प्रकार के सीमांकन हों। उनकी नजर में विश्व की किसी भी भाषा में लिखा गया संपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य किसी को भी पढ़ने के लिए दिया जा सकता है--लेकिन व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सता कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मानसिक स्तर के अनुरूप ही कला के किसी रूप का आनंद ले सकता है।
वर्तमान समय में प्राय: रचनाकार इस बात से सहमत हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र के सीमांकन को स्वीकार कर उससे पूर्व बाल मनोविज्ञान के अनुरूप 'बाल साहित्य' तथा तत्पश्चात किशोर मानसिकता के अनुकूल 'किशोर साहित्य' हमारे बाल-किशोर बच्चों को उपलब्ध कराया जाए।
कतिपय रचनाकार इस बात के खिलाफ हैं कि साहित्य में शिशु साहित्य, बाल साहित्य, किशोर साहित्य और गंभीर साहित्य जैसे किसी प्रकार के सीमांकन हों। उनकी नजर में विश्व की किसी भी भाषा में लिखा गया संपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य किसी को भी पढ़ने के लिए दिया जा सकता है--लेकिन व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सता कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मानसिक स्तर के अनुरूप ही कला के किसी रूप का आनंद ले सकता है।
वर्तमान समय में प्राय: रचनाकार इस बात से सहमत हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र के सीमांकन को स्वीकार कर उससे पूर्व बाल मनोविज्ञान के अनुरूप 'बाल साहित्य' तथा तत्पश्चात किशोर मानसिकता के अनुकूल 'किशोर साहित्य' हमारे बाल-किशोर बच्चों को उपलब्ध कराया जाए।
Subscribe to:
Posts (Atom)